"चार दिन में इतना ही बिन्न पायी बिन्ना ,गुणवंती नहीं बनी तो देखना, ससुराल जायेगी तो सास कानों में गर्म तेल ढूंस देगी सुना-सुना के ," सर पर हल्की सी चपत लगा अम्मा ने खीज के कहा।
सात साल की उम्र में ये समझना बड़ा मुश्किल लगता था की बिंन्ने में पलसेटे कैसे डालूं , बालों की चोटी बनाना ही इतना मुश्किल लगता था मुझे , इस झाड़ फूंस से कैसे गूँधूँ । पर अम्मा से ये सब कहने की हिम्मत नहीं होती थी सो छोटी छोटी आँखे फाड़-फाड़ कर देखती रहती।
मगर सास के तानों वाली बात से बहुत डर लगता था मुझे । सास सच में गर्म तेल डाल देगी कानों में। सरसों का डालेगी या तिल का। "है बाबा जी" तिल का ना डाले बड़ी बदबू लगती है उसकी मुझे , सरसों का फिर ठीक है, उसकी तो आदत है। नहीं-नहीं मैं अच्छी से बिन्ना बिंनना सीख लूँगी, तेल नहीं डलवाना मुझे।
अभी ये सब सोच रही थी अम्मा ने इक और चपत लगाई सर पर, "क्या सोचती रहती है बैठे-बैठे , बिन्ना जल्दी कर पूरा।"
पूरी रात जाग के बार-बार कोशिश करती और आखिरकार बिन्ना बिन्न ही डाला। पूरा दिन सर पे उठाये घूमती रही, ऐसी ख़ुशी जाने क्या हासिल कर लिया हो। उसी पे बैठ के खाना खाना, उसी पे बैठ के खेलना।
अम्मा हँस के बोली -पगलैट कहीं की और फिर गोद में बिठा लिया। सगों से भी सगी लगती थी अम्मा मुझे। अम्मा के गले लग के मैंने पूछा,"अम्मा! अब तो सास मेरे कानों में गर्म तेल नहीं डालेगी ना ? अब तो मैं गुणवंती हो गयी ना?"
अम्मा ने मेरी कस के बाँधी हुई छोटी-छोटी चोटियों को खोला और प्यार से धीरे-धीरे सर सहलाते हुए बोली,
" गुणवंता ना होइऐ, होइए भागवंत ! भागवंत के द्वार पर खड़े रहैं गुणवंत "
विश्वास कीजिये मुझे उस समय कुछ समझ में नहीं आया।
मैं फिर आँखें बड़ी कर देखने लगी - ये क्या कह रही है अम्मा। अम्मा ने सर सहलाना ज़ारी रखा और लम्बी साँस भरते हुए बोली ," लाडो ये सब तो तेरे अपने सुख के लिए है,गुणी बन।
मैं ऊपर उचक के अम्मा के कान देखने लगी।
अरी ! ये क्या कर रही है?
अम्मा तुम्हारे कानों में डाला सास ने गर्म तेल ?
अम्मा ज़ोर से हँसी और साथ ही आँखों में पानी भी आ गया - "तो तुझे क्या लगता है, मुझे कम क्यों सुनाई देता है?"
और हँसते हुयी उठ गयी।
पूरी रात यही सोचती रही, मैं बहुत अच्छी बनुँगी, गुणी, ..ताकि कोई कान में तेल ना डाले। अम्मा तो इतनी अच्छी है, कितना स्वाद खाना बनाती है, कितनी अच्छी सफाई करती हैं, सब काम! बेचारी अम्मा! तभी इतना ऊँचा सुनाई देता है अम्मा को ।
सोने से पहले हाथ जोड़ के ध्यान किया और मन ही मन प्रार्थना की" है बाबा जी, मेरे कान में कोई तेल ना डाले और गर्म तिल का तो कभी भी नहीं। "
बिन्ना बनाने में इतनी दक्ष हो गयी के,रंग बिरंगे धागे गूंध के,कोडियां लगा के, घुँघरू लगा के तरह-तरह से सजा लेती। हर शादी बयाह में हर दुल्हन को बिन्ना बना के भेंट करती।
बिन्ने के साथसाथ हर कार्य में भी, घर का, बाहर का, सिलाई, कढ़ाई,पढ़ाई सब। जब सब के मुँह से मेरे लिए कही अच्छी बातें कानों में जातीं तो बहुत ख़ुशी होती।
आगे की पढ़ाई करने के लिए जब गाँव छोड़ा तो अम्मा ने हँस के कहा,"गर्म तेल के डर से बिन्ना तो छोड़ हर काम में गुणी बन गयी लाडो!"
"हाँ अम्मा! तुमने अनजाने में ही सीखा दिया हर काम में अच्छा होना, हर काम अच्छे से करना !"
"बस कर रहने दे, गर्म तेल ना कान में जाए इसीलिए सीख गयी सब" अम्मा की बात सुन आस पास के सब हंस पड़े।
जाते-जाते अम्मा ने वो बिन्ना, जो जाने कब से संभाल के रखा था(जो मुझे भूल भी चूका था) थमा दिया, कहा कुछ नहीं।
एक के बाद एक कक्षा में आगे बढ़ती गयी, पी.एच.डी डिग्री, महाविद्यालय में लेक्चरर, साथ-साथ शोधकार्य, बयाह, गृहस्ती, बेटा....सब पड़ावों को सम्पूर्णता से जीते-जीते कब ज़िंदगी आगे बड़ती गयी, पता ही नहीं चला। ज़िंदगी का बिन्ना पूरी निष्ठा और स्नेह से बिनंती गयी। पर हर किसी को बुन्तर पसंद,शायद आये ये ज़रूरी नहीं।
अम्मा से उनकी रुखसती से पहले इक बार मिली तो मेरे बेटे के सर पर हाथ रखते हुए बोली "भागवन्त होइयो"
झुर्रियों वाले चेहरे पे वो अम्मा की मुस्कान ज़ेहन में सदा के लिए बस गई, जहाँ उनकी हर याद और हर बात बसी हुई है।
हम्म्म्म....
पर अम्मा गुणवंता होना हमारे हाथ में होता है, भागावंत होना नहीं। तुमने गुणवंता होना तो सीखा दिया , भागावंत कैसे होना है ये क्यों नहीं सिखाया। क्यों नहीं बताया की आप चाहे जितना मर्ज़ी गुणवान हो जाओ, रिश्तों में आदर, सत्कार और प्यार मिलना भाग की बात होती है।
मैंने रिश्तों का हर बिन्ना बहुत निष्ठा, प्रेम और परिश्रम से बुना, लगाव की कोडियां सजायीं, स्नेह और प्रेम के रंग-बिरंगे धागे से इक-इक तिनका जोड़-जोड़ आगे बीना, समर्पण, सत्कार, हर तरह के घुँघरू लगाए, बहुत प्यार से सहेजा, सब किया।
मगर मेरे कानों में रह-रह के तेल पड़ता है अम्मा और वो भी गरम तिल का तेल। और अब तो मुझे भी बहुत कम सुनाई देता है अम्मा।
ज़ोया****
बिन्ना - पहाड़ी (हिमाचली बोली) में बोला जाता है, सूखी फूस या मक्की के सूखे छल्लों को आगे जोड़-जोड़ कर चोटी की तरह बिना जाता है, और बैठने के काम आता हैं।
" गुणवंता ना होइऐ, होइए भागवंत ! भागवंत के द्वार पर खड़े रहैं गुणवंत "
गुणवान होने से ज़्यदा अच्छे भागों वाला होना अच्छा होता हैं, जिसके भाग अच्छे उसके द्वार पर गुणवान लोग काम करते हैं।
इक और कहावत भी " रूप चूरे भाग खाये" यानि जो रूपवान हैं, गुणवान है मेहनत कर और चूर-चूर कर के रोटी खोजता है और खाता है जबकि भागों वाला बिना कुछ किये सब पा जाता है।