कितनी गलियों से गुजरता है धीरे -धीरे
ऐसे तैसे कर के रोज़ पूरी रात गुजारता है
कुछ युहीं बेख्याल सा इक निशाना लगता है
कुछ युहीं बेसुध उछाल देता है कंचे
मकानों की छतों पे रुक कंचे खेलता है
घूमता घूमता फिर मेरी खिड़की पे आ टिकता है
शायद अब नींद आ ही गयी होगी ये सोच के
गोल गोल एड़ियों को उचका मुझे देखता है
देख मेरी खुली सी आँखे वो फिर मुड़ जाता है
"ये भी कोई बात हुई,मैं क्यूँ जागूँ ,तेरे संग "
गोल मटोल सा चाँद टेढ़े मेढ़े मुहं बनाता है
जाने चाँद कितने और चक्कर मेरे लिए लगाएगा
पुरानी गलियों से गुजरेगा फिर धीरे -धीरे
ऐसे तैसे कर के रोज़ की तरह ये रात भी गुजारेगा
1 टिप्पणी:
Bahot he umda .... mujhay to Pahla paragraph bahooooot accchhha laga ek dum Gulzar k tuch wala :) ...ek dum ussi sailee main likhii hai
or hannn iss poem ka profile pic ..... perfectlyyyy matched with the essence of poem
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