रविवार, अगस्त 22, 2010






तपी सी सड़क पे एड़ियाँ उचका के चल रहा था

गोल मटोल सा था,लुढ़क लुढ़क के चल रहा था

मैं बहुत दूर तलक खिड़की से देखती रही उसको

उसने मेरे तरफ इक बार न देखा न मुड़ के देखा

फिर धीरे धीरे चलते-२ आँख से औझल हो गया
........
पिछली बार कहा था इसने मुझसे सिसकते हुए

अब तुम पहली सी नही रही ...बदल गयी हो

और अब .....
अब ये चाँद मुझे पहचानता तक नही है ........!

3 टिप्‍पणियां:

सुधीर राघव ने कहा…

bahut hi sunder kavita. Vadhai ho.

http://sudhirraghav.blogspot.com/

बेनामी ने कहा…

लफ्जों की बयानी अच्छी लगी, आप तो बिलकुल ही गुलज़ार साहब की तरह लिखती हैं.....एक गुज़ारिश है कभी गुलज़ार साहब की कोई बेहतरीन नज़म पोस्ट करें|

बेनामी ने कहा…

beautiful...