शनिवार, नवंबर 13, 2010

क्या - क्या, हूं मैं अपने साथ लिए



क्या - क्या, हूं मैं अपने साथ लिए

आँखें हैं और हाथों की लकीरें हैं

कुछ ख्वाब , कुछ चाँद के टुकड़े लिए,

कुछ अधूरे ख़त हैं माज़ी के सिरहाने में ,

कुछ लिफाफें हैं अनलिखे पतों को लिए,

कुछ तजुर्बे हैं , कुछ नादानियाँ हैं ,

कुछ ज़ज्बात हैं मुक्कमल हुई तासीर लिए ,

इक कल है खोया पाया सा ,

इक सिन्दूरी आज है ताज़ा गुलाब लिए ,

इक तस्वीर है "मेरे कान्हा" की

इक अंकुरित आस है आने वाला कल लिए

इक माँग और इक डिबिया सिन्दूर की

उगते सूरज सी जीवंत लालिमा लिए

कुछ पन्ने है रिसर्च और एनालिसिस के,

कुछ पानी और मिटटी के विस्तार लिए,

कुछ और भी हैं पन्ने बिखरे-बिखरे से

"गुलज़ार" और कुछ मीर' की झूठन लिए !

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6 टिप्‍पणियां:

Dr Xitija Singh ने कहा…

bahut khoob ... isiliye aaj kal itni masroof hain aap ... :)... bahut sunder rachna ...

vandana gupta ने कहा…

बहुत खूब्…………काफ़ी है जीने के लिये।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

हूँ .....ये हुई न कुछ बात !
बेहतरीन प्रस्तुति .......
लगता है जैसे सूरज को उगते हुए देख रहा हूँ........
उजास और ऊर्जा से भरी एक सुबह !
आपकी ये rachanaa man को bhaa gayee /

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुंदर भावों को सरल भाषा में कहा गया है. अच्छी रचना

अरुण अवध ने कहा…

बहुत सशक्त और प्रभावशाली है रचना , बहत अच्छी लगी,बहुत बधाई !

अरुण अवध ने कहा…

बहुत सशक्त और प्रभावशाली है रचना , बहत अच्छी लगी,बहुत बधाई !