तुमसे पहले रिश्तों की भीड़ में अकेली सी थी
बिन तेरे अब मैं तन्हाईयौं में अकेली अकेली हूँ
मेरी हर रात वही पुरानी सी गुजरती है यादों में
पर हर सुबह नई उमंग के साथ नई नवेली हूँ
तुमने सुलझाया नही, मैंने भी खुद को छोड़ दिया
पहले आस थी तो आधी थी,अब मैं पूरी पहेली हूँ
लोग कहते हैं बड़ों सी बड़ी - बड़ी बातें करती हो
वो दिन थे जब तुम कहते बच्चों सी नखरेली हूँ
तुम बिन न काज़ल सोहे,ना रंगत गुलाबी लगती है
तुम आओ तो श्रृंगार करूँ , तुमसे ही शैल-छबीली हूँ
तुम थे मेरे साथी जब,, तब मैं तुम्हारी सहेली थी
तुम नही हो पास मेरे , ,अब मैं चाँद की सहेली हूँ !
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(ये मेरी कुछ बहुत ही पूरानी लिखी हुई अधपकी सी ग़ज़लों में से है...शायद ये 2008 में लिखी थी मैं ..यहीं से शायद ...चाँद की सहेली ....हो गयी ....)
तुमने सुलझाया नही, मैंने भी खुद को छोड़ दिया
जवाब देंहटाएंपहले आस थी तो आधी थी,अब मैं पूरी पहेली ह
बहुत ही सुन्दर रचना।
क्या बात है..बहुत खूब....बड़ी खूबसूरती से दिल के भावों को शब्दों में ढाला है.
जवाब देंहटाएंपर हर सुबह नई उमंग के साथ नई नवेली हूँ......
जवाब देंहटाएंआशा, उमंग, अल्हड़पन ........के साथ-साथ अब थोड़ी सी परिपक्वता भी आने लगी है ........आखिर बचपन कब तक रहेगा !
पर .....बचपन की निश्छलता और भोलापन अभी भी साफ़ दिखाई दे रहा है इस कविता में.
bahut sundar prastuti.....shubhakamnaaye
जवाब देंहटाएंbahut sundar prastuti.....shubhakamnaaye
जवाब देंहटाएंbahut sundar prastuti.....shubhakamnaaye
जवाब देंहटाएंbahut achha likthi hai aap
जवाब देंहटाएंकितनी सीदगी से इतनी गहरी बात बोल गईं आप। पढ़ते वक्त बरबस ही होंठ गुनगुना उठे।
जवाब देंहटाएंaap sab ka tah e dil se shukriyaaa
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