शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

चाँद की सहेली



तुमसे पहले रिश्तों की भीड़ में अकेली सी थी
बिन तेरे अब मैं तन्हाईयौं में अकेली अकेली हूँ

मेरी हर रात  वही पुरानी सी गुजरती है यादों में
पर हर सुबह नई उमंग के साथ  नई नवेली हूँ

तुमने सुलझाया नही, मैंने भी खुद को छोड़ दिया
पहले आस थी तो आधी थी,अब मैं पूरी पहेली हूँ

लोग कहते  हैं बड़ों सी बड़ी - बड़ी बातें करती हो
वो दिन थे जब तुम कहते बच्चों सी नखरेली हूँ

तुम बिन न काज़ल सोहे,ना रंगत गुलाबी लगती है
तुम आओ तो श्रृंगार करूँ , तुमसे ही शैल-छबीली हूँ

तुम थे मेरे साथी जब,, तब मैं तुम्हारी सहेली थी
तुम नही हो पास मेरे , ,अब  मैं चाँद की सहेली हूँ !
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(ये मेरी कुछ बहुत ही पूरानी लिखी हुई अधपकी सी ग़ज़लों में से है...शायद ये 2008 में लिखी थी मैं ..यहीं से शायद ...चाँद की सहेली ....हो गयी ....)

9 टिप्‍पणियां:

  1. तुमने सुलझाया नही, मैंने भी खुद को छोड़ दिया
    पहले आस थी तो आधी थी,अब मैं पूरी पहेली ह

    बहुत ही सुन्दर रचना।

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  2. क्या बात है..बहुत खूब....बड़ी खूबसूरती से दिल के भावों को शब्दों में ढाला है.

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  3. पर हर सुबह नई उमंग के साथ नई नवेली हूँ......
    आशा, उमंग, अल्हड़पन ........के साथ-साथ अब थोड़ी सी परिपक्वता भी आने लगी है ........आखिर बचपन कब तक रहेगा !
    पर .....बचपन की निश्छलता और भोलापन अभी भी साफ़ दिखाई दे रहा है इस कविता में.

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  4. कितनी सीदगी से इतनी गहरी बात बोल गईं आप। पढ़ते वक्त बरबस ही होंठ गुनगुना उठे।

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