गुरुवार, नवंबर 24, 2011

'जहाज़ की चिड़िया'




कुछ नही था वहां उसके लिए 
न प्यास बुझा सके इतना पानी
ना तन मन की भूख ही मिट सके 
ऐसा कुछ था उसके लिए वहां
ना हरियाली जिंदगी की 
ना खुशहाली रिश्तों की 
रह-२ के रेतीली हवाओं के थपेड़े 
उसके नाज़ुक से जिस्म को 
उधेड़ जाते खरोंच जाते 
तपते सूरज की कटीली आंच 
उसके परों को झुलसा जाती 
कई बार वो उड़ के दूर चली जाती
दूर दूर तक उड़ आती .....
दूर दूर तक फैले अथाह समंदर में 
और फिर थक के वापिस लोट आती 


इक दिन छूट गयी थी अपने ज़हाज़ से 
ये 'जहाज़ की चिड़िया' इस रेतीले टापू पे 
अब यही है  इसका ....घरौंदा या पिंजरा !
कई बार दूर दूर तक उड़ आती है ..
और फिर थक के वापिस लोट आती  !
जोया**** 


18 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति |याद आई वे लाइनें
    जैसे जहाज का पंछी फिर जहाज पर आए
    आशा

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  2. बहुत ही मर्मस्पर्शी भाव हैं कविता के।

    सादर

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  3. बहुत ही सुन्दर पोस्ट और तस्वीर भी :-)

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  4. शाद इसी का नाम ज़िंदगी है .... भावपूर्ण अभिव्यक्ति ....

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  5. बहुत ही सुन्दर शब्द और भावो की प्रस्तुती.....

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  6. कल 27/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  7. वाह ...बहुत ही बढि़या।

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  8. कुछ पठित पंक्तियों की याद दिलाती एक खुबसूरत रचना...
    सादर....

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  9. बेहद भाव पूर्ण अभिव्यक्ति....

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  10. इक दिन छूट गयी थी अपने ज़हाज़ से
    ये 'जहाज़ की चिड़िया' इस रेतीले टापू पे
    अब यही है इसका ....घरौंदा या पिंजरा !
    कई बार दूर दूर तक उड़ आती है ..
    और फिर थक के वापिस लोट आती ! जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ …………कितनी गहन बात कही है ………बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  11. इक दिन छूट गयी थी अपने ज़हाज़ से
    ये 'जहाज़ की चिड़िया' इस रेतीले टापू पे
    अब यही है इसका ....घरौंदा या पिंजरा !भावपूर्ण प्रस्तुति.

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  12. बहुत सुन्दर लेखन है आपका जोया जी.
    हलचल से आपके ब्लॉग पर आना सार्थक हुआ.

    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.

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  13. मर्मस्पर्शी कविता.यही मनुष्य की भी नियति है.

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