समेट के भेज रही हूँ सुबह सुबह की बारिश
मेरे इक ख़त में
कुछ बूदें ...कुछ लड़ियाँ पानीयों से सनी
महकती मिटटी की खुशबू ....कुछ हवाओं का सीलापन
इक सार गिरती बूंदों से बनी गले की माला
और रिमझिम -2 करती कानों में अटकी बूंदों की बालियाँ .
जब खोलोगे मेरा ख़त तो बताना...,था क्या ये सब सामान
मेरे उस ख़त में
सजल आकाश का धूआं ...भीगी धरती की कंपक्म्पाहट
लोहे की तार पे हीरों सी चमकती बूँदें
खम्बे के सहारे टिकाया बदन ,और उस बदन की सिरहन
फर्श पे ठहरा पानी .....और उसमे धुंधला सा मेरा अक्स
जब पढोगे तुम मेरा वो ख़त , तो बताना ,क्या मेरा अक्स था
मेरे उस ख़त में
जब बंद करोगे मेरा वो ख़त तो देखना ,
हथेली पे सिलापन था के नही....या थी कुछ बूंदें
सिरहन कौंधी थी तुम्हारे भी बदन में
सजल हुआ तुम्हारा भी आकाश के नही
क्या पहुंचा तुम्हारी भी आँखों में धुंआ के नही
मेरे उस ख़त से
और हाँ !
सम्भाल पाओ तो ही रखना .वो सब सामान
"बारिश, सुबहा की नमी और मेरा वो ख़त "
मगर मौड़ के मत रख देना किसी किताब में
खामखाँ !...किताब भीग जाएगी ......
मेरे उस ख़त से !
ज़ोया
बेहद शानदार प्रेममयी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसंजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
अति उत्तम -
जवाब देंहटाएंआभार ।।
सम्भाल पाओ तो ही रखना .वो सब सामान
जवाब देंहटाएं"बारिश, सुबहा की नमी और मेरा वो ख़त "
मगर मौड़ के मत रख देना किसी किताब में
खामखाँ !...किताब भीग जाएगी ......
मेरे उस ख़त से !
बहुत खूबसूरत नज़्म ... गजब का खत है
बारिशों के पानी से...सारी वादी भर गयी...
जवाब देंहटाएंअद्दुत!!
जवाब देंहटाएंये खत तो अनमोल है, बेशकीमती
और उतनी ही बेशकीमती है ये कविता!!! :)
कुछ कहने को बचा ही नहीं जी .. इसे पढ़ने के बाद.
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