शुक्रवार, सितंबर 27, 2019

बुझती आकांक्षा


 गाड़ी के रुकने की आवाज़ आते ही घड़ी की तरफ ध्यान गया, हम्म्म .....आठ बज गए। आकांक्षा ने शीशे के बड़े से  दरवाज़े  से बाहर देखा, राज गाड़ी से निकल के गेट खोल के अंदर आ रहा था। अभी दरवाज़े तक पहुँचता की फोन जेब से निकाल लिया। आकांक्षा ने इक मुस्कान के साथ दरवाज़ा खोला। उधर से इक अजीब सा रिऐक्शन आया, जो कई सालों से मिल रहा है, पर क्या बोलते हैं इसे, वो उसे पता नहीं। इक रिऐक्शन, जो बस करने के लिए कर दिया जाता है, फीकी सी, अधपकी सी मुस्कान। इस रिएक्शन का क्या नाम होता होगा। वो अपने ही ख्यालों में दरवाजे पर खड़ी रह गयी और राज कब सोफे पे आ बैठ गया उसे  एहसास भी नहीं हुआ। 
पानी का गिलास रखते हुए, मुस्कुराते हुए आकांक्षा ने पूछा,  "दिन कैसा रहा आज, अच्छा रहा सब .. मीटिंग .?

हमेशा की तरह, मोबाइल की तरफ देखते हुए जवाब आया, "गुड"। 

चाय की प्याली मेज़ पर रखते इक नज़र राज की ओर देखा। ध्यान अभी भी मोबाइल में था। ना चाहते हुए भी कहा, "चाय त्यार है, साथ में सनैक्स भी हैं"। 

"हूँ"। 

उठ के रसोई की तरफ़ जाते-जाते, इक पल पीछे मुड़ राज की तरफ देखा और फिर उसकी सोच ने उसे अपनी आगोश में फिर भर लिया। 

ऐसा लगता है रोबोटिक टाइम लूप में हूँ मैं, समय आगे तो बढ़ता है मगर समय फिक्स्ड पैटर्नस में रहता है। मशीनी सी ज़िंदगी, भाववाहिन, रागवाहिन। सालों से यही पैटर्न है.. सेम। 
शुरआती वक़्त में, झूठी-मुठी रूठते हुई फोन खेंच कैसे गोद में बेठ जाती थी, "फोन  छोड़ो, मुझे देखो! समझे" और खुद ही खिलखिला उठती। और राज का वही रिएक्टशन, जिसका उसे आज भी नाम पता नहीं। पर वो  मनोहार करती रहती। 
दिन में कितने ही मौके, हफ्ते में कितनी ही बार, महीनों में कितनी दफा, सालों में कितने अवसरों पर , छोटी छोटी बातों पर...,बड़ी-बड़ी बातों पर, आकांक्षा अपनी सुंदरता, अपनी सुघड़ता, अपनी सादगी, अपनी जीवंतता से हर नीरस भाव में रस भरने की कोशिश में लगी रही।  कितनी दफा बैठ के दिल की बात कही, समझायी।
जो कहना चाहती थी, जो सुनना चाहती थी.............सब।
हर आस, हर चाह, हर उमंग हर कोशिश..............सब।
फिर धीरे धीरे, सब बेअसर, बेवजह ......................सब। 
फिर धीरे धीरे, सब उबाऊ होने लगा......................सब। 
यहां तक की कोशिश करने की सब चाह भी...........सब।

अचानक से बेटे ने आके जब कस के जपफी डाली तो आकांक्षा अपने ख्यालों के जाल से बाहर आयी।  
''मम्मा , स्टोरी टाइम''।  

इक जीवंत मुस्कान ने  हाँ में जवाब दिया। "ओके, पापा को खाना दे के आती हूँ ....... आप जल्दी से ब्रश करो, नाईट ड्रेस चेंज करो, मम्मा अभी आयी। ओके ।  

हिरण की तरह उछलता हुआ भाग गया।  वो जीवंत  मुस्कान  होंठों पर चिपकी रह गयी।  

 "आ जाओ ,खाना परोस दिया हैं, सूजी की खीर भी बनाई है।"

"हाँ, आता हूँ थोड़ी देर में''। 

वो वहीँ  खड़ी राज की और देख रही थी। 

मगर अचानक, उसके शरीर में से वो  निकल के बाहर आ गयी।  हु-ब -हु आकांक्षा की तरह, मगर थोड़ी यंग, थोड़ी  उमंग से भरी, ताज़ा तरीन सी और चहचहाते हुए बोली,   'थोड़ी देर में नहीं, अभी के अभी, देखो तो कितना टेस्टी खाना बनाया है, दाल भी बनाई है, सब्जी भी बनाई, सलाद, और सूजी की खीर भी, गर्मागर्म, जल्दी से आओ ना , मुझे बहुत भूख लगी है कब से वेट कर रही हूँ आपकी और ये कहते-कहते बाँहें  राज के गले में डाल दी। 

मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। सालों की उदासीनता और विराग ने आकांक्षा को नुकूलित कर दिया था इस परिस्थिति के साथ। 

वो जाने के लिए जैसे ही मुड़ी, किसी ने उसका हाथ यूँ खेंचा जैसे रोकना चाहता हो। उसके चेहरे पर इक हल्की सी, मगर दर्द भरी मुस्कान घिर आयी। वो जानती थी कौन रोक रहा है उसे।

राज..........., नहीं, बिलकुल भी नहीं, ये क्षण तो उसके जीवन में कभी आया ही नहीं।  

उसका मुड़ने का बिलकुल मन नहीं था, पर आस  का टूटना कितना दुःख देता है, वो अच्छे से जानती थी वो बेमन से मुड़ी। उस पतली सी हथेली को वो सालों से जानती है और उन छोटी छोटी पनीली आँखों को भी।  पिछले कुछ सालों से अक्सर वो उसका हाथ पकड़ के रोकती जो है। आकांक्षा ने स्नेहिल सी मुस्कान के साथ उसकी और देखा। 
उमंग और आस से भरी आँखों में आग्रह भर के वो कह उठी, "इक बार और कोशिश करते हैं ना, अभी लाख दो लाख बार ही तो कोशिश की है। 
आकांक्षा  ने बड़े प्यार से उसके गालों को छुआ, जैसे कोई छोटी सी अबोध सी बच्ची हो और फिर सिर हिला के उससे हाथ छुड़ा लिया। वो त्योरियां चढ़ा उसे नाराज़गी में घूरने लगी। 

 इक बार राज की तरफ देखते हुए 
आकांक्षा ने कहा, "ओके! बेटू को सुलाने जा रही हूँ" 

"हाँ, ठीक है गुड़ नाइट।"


इससे ज़्यादा के शब्दों की उम्मीद उसे बहुत साल पहले ख़त्म हो चुकी थी 

आकांक्षा  बैडरूम की तरफ मुड़ गयी।  रूम में ऐंटर करने से पहले उसने इक बार फिर अपनी रूखी, उदासीनता और निराशा से भरी, सुखी आँखों से पीछे मुड़ के देखा। वो अभी भी उसकी तरफ देख रही थी आँखों में पानी भरे।  




ज़ोया****



13 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद हृदयस्पर्शी अपने आप अद्भुत । भावों का चित्र सा खींच देती हैं आप लेखनी के माध्यम से ।

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  2. जय मां हाटेशवरी.......
    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    29/09/2019 रविवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......

    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    http s://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

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  3. जी नमस्ते,



    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (29-09-2019) को "नाज़ुक कलाई मोड़ ना" (चर्चा अंक- 3473) पर भी होगी।



    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।



    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।


    आप भी सादर आमंत्रित है

    ….

    अनीता सैनी

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  4. Meena ji

    :)

    apkaa dhanywad kis trhaa dun....bahut zaruri hota he likhne wale jis bhaawnaaon ke sath likhaa ho wo pdhane wale tak pahunche

    bahut bahut aabhaar aapkaa

    yuh sath bnaaye rkhen

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  5. kuldeep ji

    blog tak pahunchne aur lekhan kp pdhane ke liye aabhaar

    lekhan ko sthaan dene ke liye tah e dil se shukriya

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  6. Anita ji

    utsaah bdhaane aur lekhan ko is kaabil smjhne ke liye bahut bahut aabhaar

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  7. ज़ोया जी अभिभूत हो गई, चमत्कृत कर दिया आपकी लेखनी ने , निशब्द हूं एहसासों का द्रवित होता प्रवाह ।
    अप्रतिम।

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  8. दुनियां जिसे अटूट बन्धन बोलती है वो कई बार मजबूरियों का रिश्ता बन जाता है। दोनों में से कोई एक कि उदासीनता की वजह से।
    आपकी कहानी में कसावट है जो अंत तक पढ़ने को मजबूर करती है।
    उम्दा प्रस्तुति।

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  9. कुसुम जी 
    आप की भाषा शैली और लेखन की तो मैं खुद प्रशंसक हूँ और  आपसे इतने  प्यारे शब्द पाना ा बहुत सुखद  है 
    आभार उत्साह बढ़ाने के लिए 

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  10. Rohitas जी 

    मेरी राय में, लिखने वाले के लिए सबसे अच्छी बात ये होती है जब पढ़ने वाला उन एहसासो को समझे जिन्हे लिखने वाले ने शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया हो 
    कहानी का मर्म समझने के लिए धन्यवाद 

    आभार उत्साह बढ़ाने के लिए 

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  11. Omg..
    बहुत ही भावपूर्ण और वास्तविक रचना।असल जिंदगी भी हमे ना जाने कितने मसाईल से यू ही रूबरू करा देती है जिसके लिए हम तैयार नही होते या उम्मीद नही करते-

    मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। सालों की उदासीनता और विराग ने आकांक्षा को अनुकूलित कर दिया था इस परिस्थिति के साथ।

    ये लाइन्स बेस्ट लगी।
    आभार

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  12. भावपूर्ण रचना जो उत्कृष्ट शैली में लिखी गई है।

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  13. Gopal ji

    blog tak pahunchane, kahaani pdhane aur sraahane ke liye bahut aabhar


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