चाँद की सहेली****

रविवार, अगस्त 22, 2010

भारतिय तिरंगा-चिट्ठाप्रहरी
Posted by VenuS "ज़ोया" at 8/22/2010 11:57:00 am

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मैं इक बिखरी सी नज़्म ही भली थी , गुलज़ार के पन्नो पे ...जब से "गुलज़ार" के हाथों से छूटी हूं ..ना तंजीम बैठती है मुझपे ..ना ही कोई तरतीब ...तब से मुन्तशिर हूं, बेइख़्तियार...काश ! इक बिखरी सी नज़्म ही रहती मैं.."गुलज़ार" के पन्नो पे:-"ज़ोया"

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पल-2 बदलती हर मोड़ पर फिर भी आहंग है मुझमे, होती है मुझमे वेकराँ ख्यालो की तखमील और मिलती है तकमील मुझीमे मेरी 'मैं' को ! वही 'मैं' जो पल-२ बदलती रहती है !
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