हर दिशा टोह के मुझ पर ही आ के ठहर जाती है
मुझसे शुरू हो मुझपे ही रूकती है ये मेरी मृगतृष्णा
उमस भरी ये महकी महकी,सुखी हुई पर दहकी दहकी
मुझी में जल - जल के बुझती है ,ये मेरी मृगतृष्णा
भीड़ हो रिश्तों की या हो तन्हाई, खामशी या शेहनाई
मैं ही बस मैं हूँ और साथ मेरे है, ये मेरी मृगतृष्णा
इक दूर तक खिंची जाती हूँ,मुड़ - मुड़ के आती हूँ
ना जाने कहाँ तक ले जायेगी मुझे ये मेरी मृगतृष्णा
खुद में उलझी सी, बनके रह गयी हूँ इक पहेली सी
सुलझ जाऊं ,जो बक्शे मुझे कभी ये मेरी मृगतृष्णा
रास्ते थक गये , इंतज़ार में सो गयी मंजिले 'ज़ोया'
कदम मुड़ते हैं वहीँ,जहां खडी हो ये मेरी मृगतृष्णा
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2 टिप्पणियां:
भीड़ हो रिश्तों की या हो तन्हाई, खामशी या शेहनाई
मैं ही बस मैं हूँ और साथ मेरे है, ये मेरी मृगतृष्णा
कितना सही लिखा है आप ने.........
उम्दा कविता है हकिकत को उभारता हुआ
thanxxx Rakesh ji......[:)]
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