सोमवार, नवंबर 15, 2010

फिर वही फुर्सत के रात दिन !



वो भी क्या........... रात - दिन थे यारो
तारात बस इक ख्याल से ही लिपटे रहना
कभी चाँद से बतियाना कभी युहीं सुस्ताना
बहुत कुछ से..कुछ भी नही तक बस युहीं
रात भर नज़्म बनाना .और फिर मिटाना
...........जगरतों की वो सुजन भरी आँखें
फिर छुपाने के लिए काजल सजाना.......
इक नाज़ुक सी कली भी चटकती थी कभी
तभी बन जाती थी त्रिवेणी भी नन्ही सी
या सर्दी की धुंध , ग़ज़लों की रजाई बुनती
पतीले में उबलती चाय के बदलते रंगों में
कभी सदियों के मौसम बदलते दिखते थे
बस हर वक़्त युहीं छोटी - छोटी बातों में
अक्सर ये ख्याल -ओ- कलम चलते थे....

         और अब ये आलम है

.....दिनभर के चक्कर में रात से पहले ही
नींद कम्बल ले ......आँखों में आ बस्ती है
चाँद तो मानो बस .....दूर के रिश्तेदार सा
कभी कभी ......झांक जाता है पल दो पल
.....काजल के लिए तो अब फुर्सत ही नही
वैसे आँखों में अब वो सुजन भी नही.......
कली चटके ........या .....कोई बादल गरजे
सर्दी की धुंध छाये .......या...... पानी बरसे
नज़्म ओ त्रिवेणी का तो पता नही.........
...............हाँ' ...पकोड़े जरुर बनते हैं  

...............किसी शाम बस जब कुछ पन्ने
पुरानी सियाही के दिख जाते हैं..............
....................तो ख्याल आता है ......हाँ
कभी वो रात -दिन भी थे फुर्सत के..........
...........तब सही मायने में समझ आता है
..."ग़ालिब" ने क्यूँ कहा होगा ................
दिल ढूंढ़ता है फिर वही .............
............................. फुर्सत के रात दिन !

6 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी लगी ग़ज़लों की रजाई .......बिम्ब अच्छे ढूंढ लेती हैं आप /
    अच्छी रचना .......
    और हाँ ! पकोड़े खाने कब आऊँ?

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  2. आपकी हर पोस्ट के साथ उपयुक्त चित्रों का चयन ....
    काबिले तारीफ़ है
    आज ये छाते की आड़ में बैठी जोया बिन कहे ही न जाने कितना कुछ बयां कर दे रही है

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  3. वाह... फुर्सत के दिनों की कहानी काफी फुर्सत से लिखी है आपने. ये नज़्म पसंद आई और इसके पहले की सारी नज्में भी..

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  4. hmmm....ab ye mere fav. mai se ek ho gayi hai.....her line k bhind...kitna vivid pic. creat kiya hai aap n......amazing....keep it up

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