मैं उसे रोज़ देखती
और शायद वो मुझे
इधर उधर रस्ते पे भटकती वो
गाड़ियों के चक्कर पे चक्कर लगाती
पर कभी कुछ कहती नहीं ना मांगती
बस खड़ी रहती जैसे इक मज़बूरी हो
और आज भी रोज़ की तरह
मैं और वो
इक दूजे को देख रही थीं
ट्रैफिक सिग्नल पे
धूल से सने उसके बाल
बस खड़ी रहती जैसे इक मज़बूरी हो
और आज भी रोज़ की तरह
मैं और वो
इक दूजे को देख रही थीं
ट्रैफिक सिग्नल पे
धूल से सने उसके बाल
जाने कितने रास्तों का पता बतलाते
चंद चिथड़े मुश्किल से उसका तन
ढकने की कोशिश में लगे थे
घुटनों से नंगी टांगों को अनगनित नज़रे
चिपक के ढांप रहीं थीं
सांवली सी रंगत पे उसकी
वक़्त ने और भी कालिख चढ़ा दी थी
काँधे पे एक फटी सी चुन्नी
उसका सीना छुपाने की
इक मजबूर सी कोशिश कर रही थी
हवा में बिना मकसद के उड़ते
इक कागज़ की तरहा उसकी आँखें
मुझे उस से बांधे जाती
बड़े गौर से देख रही थी मैं उसे
शायद यही देख मुझ तक आने लगी
सकूटरओं ..मोटरसाइकलों से हो
बेहयाई से घूरती नजरों से निकल
मुझ तक आने की कोशिश कर रही थी
बेहयाई से घूरती नजरों से निकल
मुझ तक आने की कोशिश कर रही थी
और तभी
बड़ी सभ्य सी दिखने वाली इक महिला बोली ,
"..अग्गे जा .यहाँ से ...हूं
देखो तो बेहया ने कैसे कपड़े पहने हैं
इन ओरतों को जरा शर्म नही
जिस्म दिखा दिखा के पैसे मांगती है "
वो अब भी उतनी ही खामोश थी
उसने मुझे चुराई हुई नज़र से देखा
फिर आस पास की व्यंगात्मक नजरों को
उसने मुझे चुराई हुई नज़र से देखा
फिर आस पास की व्यंगात्मक नजरों को
फिर ना जाने क्या सोच
वापिस चली गयी ...वो
वापिस चली गयी ...वो
.............
अपनी अलमारी में कपड़ों के ढेर को देख के
मैं आज बड़ी खामोश सी हूं
.
.
.
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12 टिप्पणियां:
बेहद मर्मांतक्।
अत्यंत प्रभावशाली
शायद बेबसी की दास्तान है ये
दर्द और संवेदना...
सरल और गहरी कविता..
अच्छी लगी..
आभार
भावपूर्ण रचना अभिव्यक्ति ... आप इतना अच्छा लिखती है.. की पढ़कर मैं भी भावों की दुनिया में खो जाता हूँ .... आभार
कहीं शौक से उरवा हैं लोग कहीँ मजबूरी है,फर्क करने को संवेदना चाहिए जो खोती जा रही है.
झकझोर दिया आपने.
अपनी अलमारी में कपड़ों के ढेर को देख के
मैं आज बड़ी खामोश सी हूं
आखीर की दो लाइनों ने कविता के end को बहुत मार्मिक बना दिया है. मन बोझिल हो गया.
waah bahut khoob zoya ... kamaal ka likha hai ..
आपको और आपके परिवार को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ
एक दृश्य जो हमारे आस-पास बिखरे तमाम दृश्यों में से एक है ,
सभ्य समाज की फटन से झांकते हुए ये चहरे !
इन्हें अनदेखा करें भी तो कैसे ?
मन को छूती रचना ! प्रभावशाली ,सराहनीय !
आज आखिर मैंने फिर से आपका ब्लॉग ढूंढ ही लिया ......बहुत खूब....शारदार पोस्ट है आपकी.....पहले से अब आप बहुत अच्छा लिख रही हैं........मेरी शुभकामनायें|
आज आखिर मैंने फिर से आपका ब्लॉग ढूंढ ही लिया ......बहुत खूब....शारदार पोस्ट है आपकी.....पहले से अब आप बहुत अच्छा लिख रही हैं........मेरी शुभकामनायें|
आपकी इस रचना ने गहराई से मन को छू लिया
बेहद ह्रदयस्पर्शी
आभार
शुभ कामनाएं
मार्मिकता का चरम है शायद..... जहाँ बेबसी भी साथ में संलग्न है....
आखिर मानसिकता है ही ऐसी इंसानी.....
touching deep within heart.....
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