शनिवार, जुलाई 16, 2011

जिंदगी भी कागज़ -पेंसिल की तरहा होती





मैंने कई बार उठायी है कलम कुछ नया लिखने के लिए
पर आँखों और बदन का बोझिलपन सुस्त बना देता है

 पूरा दिन दुनिया उठाने के बाद कलम उठाई नही जाती!



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काश के अपनी जिंदगी भी कागज़ -पेंसिल की तरहा होती
जो गलत लिखा गया , मिटोया और फिर से लिख लिया

 यहाँ तो गलतियाँ भी हज़ार और ऊपर से इरेज़र भी नही!

                                
:- *****

14 टिप्‍पणियां:

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

अन्वेषिका जी ! कुछ गलतियाँ तो सुधारी जा सकती हैं पर कुछ गलतियाँ यह मौक़ा एक बार भी नहीं देतीं ......ज़िंदगी ऐसी ही है .......कभी नीम-नीम कभी शहद-शहद ..
बहरहाल कागज़ पेन्सिल और इरेज़र वाली पंक्ति अच्छी लगी ......
किन्तु तुम अभी तक जाग रही हो ? पता है समय कितना हो गया है ? ...चलो सो जाकर ....

विभूति" ने कहा…

बहुत सही कहा आपने...

रविकर ने कहा…

वाह
जिदगी
कागज़
लिखना
और इरेजर ||
बधाई ||

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बेहतरीन.


सादर

Mukesh ने कहा…

सुन्दर
बहुत सही

Mukesh ने कहा…

सुन्दर
बहुत सही

संजय भास्‍कर ने कहा…

आपकी हर रचना की तरह यह रचना भी बेमिसाल है !
एक और सुन्दर कविता आपकी कलम से !

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

गलतियों से ही अनुभव जमा होते हैं ..

Vaanbhatt ने कहा…

इसीलिए हर ज़िन्दगी की अलग कहानी है...नहीं तो सब एक सी लिख लेते...नक़ल करके...

बेनामी ने कहा…

पूरा दिन दुनिया उठाने के बाद कलम उठाई नही जाती!

बहुत खूब......शानदार|

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 21 - 07- 2011 को यहाँ भी है

नयी पुरानी हल चल में आज- उसकी आँखों में झिल मिल तारे -

abhi ने कहा…

जिंदगी अगर सच में कागज़ पेंसिल की तरह होती तो फिर बात ही क्या होती...फ़िक्र करने को फिर कुछ बचता कहाँ :)

yogesh dhyani ने कहा…

dono hi bahut achchi triveniyan hain venus ji.

बेनामी ने कहा…

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