बुधवार, जुलाई 31, 2013

लम्स की तपिश



बस इक बार ही चखा था मैंने 

तुम्हारा लम्स अपनी ठंडी रूह से लेकिन

बरसों सुलगता रहा रूह का वो हिस्सा

और चिंगारी की तरह रूह को पकाता रहा 

बस उस लम्स की तपिश से सिकती रही 

और जीती रही सालों - साल 

चखती रहती रूह उस चिंगारी को धीरे-धीरे

और पक के निखरने लगी, बढ़ने लगी 

ज्यूँ- ज्यूँ मेरी रूह का दायरा बढ़ता गया

चिंगारी चखने की आदत भी बढती गयी


पर वक़्त के साथ मधम हो चली है तपिश

दायरा बहुत फैलने लगा है रूह का

और साथ ही बढने लगी है इसकी ठंडक


……………. बस कभी आके,  इक बार फिर से

जरा सा चखा जाना रूह को अपना लम्स ……

.कुछ साल और...जी लेगी बेचारी

तुम्हारे इक लम्स की तपिश में!

                                                                                 ज़ोया ****

13 टिप्‍पणियां:

  1. Sushma ji..blog tak aane aur rchnaa ko sraahne ke liye tah e dil se shurkiya

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  2. कोमल एहसास जगाती रचना ...वाह

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  3. गहरी ... दूर की दुनिया में हलके होकर उड़ने का मन हो आता है ...
    कुछ साँसें जीती हैं उन लम्स की तपिश से जो मद्धम हो जाती है समय के साथ ... उसी वक़्त को थामे रखने की कोशिश ...

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  4. बस इक बार ही चखा था मैंने

    …… बस कभी आके, इक बार फिर से
    जरा सा चखा जाना रूह को अपना लम्स ……
    कुछ साल और...जी लेगी बेचारी
    तुम्हारे इक लम्स की तपिश में!

    वाह...VenuS "ज़ोया" जी
    वाऽहऽऽ…!

    आपकी कविताएं मन पर असर करती हैं...
    ...और ब्लॉग भी बहुत ख़ूबसूरत है
    :)


    मंगलकामनाओं सहित...
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  5. गहरी ... दूर की दुनिया में हलके होकर उड़ने का मन हो आता है ...
    कुछ साँसें जीती हैं उन लम्स की तपिश से जो मद्धम हो जाती है समय के साथ ... उसी वक़्त को थामे रखने की कोशिश ...


    hmmmmmm

    aapke shabd pdh ke bdi shaanti si mili........shukiryaaa

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  6. राजेन्द्र स्वर्णकार aur Abhi .ji...aap yahaan tak..aaye..likhe ko srhaa...shukriyaa

    take care

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  7. कुछ साल और...जी लेगी बेचारी

    तुम्हारे इक लम्स की तपिश में!

    इन्तेजार और प्यार सच में अजीब इस्थिति हे

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