मैं पृथ्वी की तरह
रात से दिन घूमती
अपनी ही धुरी पर
ना जाने कब से
फिर भी रुकी हूँ
युगों से एक ही रास्ते पर
नियति की परिधि पे
निरंतर गोल-2 घूमती
रुकी सी एक ही रस्ते पे
कोई उल्का , कोई क्षुद्रग्रह
गुज़रे जो कभी पास से
तो सोचती हूँ इक पल को
रुकूँ .. मूडु . ..उस और
मगर, मुड़ नहीं पाती
और रुक भी नही पाती
दिन रात बिगड़ने लगते हैं मेरे
ज़ोया****
Kuldeep ji...bahut bahut shukriyaaa aapkaa...:)
जवाब देंहटाएंदूसरों के लिए जीने वाले अपने दिल की कहाँ कर पाते हैं...बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंvaanbhat ...hmm...aap ne bilkul sahii nabz pakdii...shurkiyaa...
जवाब देंहटाएंonkar ji ..thanx yahaan tak aane aur psnd krne ke liye
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत अहसास |
जवाब देंहटाएंबहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरत रचना...
जवाब देंहटाएंimraan ji..bahut bahut shukriyaa
जवाब देंहटाएंsushmaa ji...aap khud itna khobsurat likhti he..aapse aise shabd pana...bahut bahut dhanywaad
जवाब देंहटाएंkailaash ji shurkiya
जवाब देंहटाएंRidiculous story there. What happened after? Take care!
जवाब देंहटाएंAlso visit my web blog; Shoe Lift
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जवाब देंहटाएंhappening with this post which I am reading at this time.
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सूख कर झड़े पत्तों की सरसराहट को एकदम ठीक-ठीक सुन पाना कहाँ से सीखा ? इत्ती कम उम्र में इतनी परिपक्वता !!!
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