मंगलवार, मई 27, 2014

दिन रात बिगड़ने लगते हैं मेरे

                   
मैं पृथ्वी की तरह
रात से दिन घूमती
अपनी ही धुरी पर
ना जाने कब से
फिर भी रुकी हूँ
युगों से एक ही रास्ते पर
नियति की परिधि पे
निरंतर गोल-2 घूमती
रुकी सी एक ही रस्ते पे
कोई उल्का , कोई क्षुद्रग्रह
गुज़रे जो कभी पास से
तो सोचती हूँ इक पल को
रुकूँ .. मूडु . ..उस और
मगर, मुड़ नहीं पाती
और रुक भी नही पाती
दिन रात बिगड़ने लगते हैं मेरे
ज़ोया****

13 टिप्‍पणियां:

  1. दूसरों के लिए जीने वाले अपने दिल की कहाँ कर पाते हैं...बहुत खूब...

    जवाब देंहटाएं
  2. vaanbhat ...hmm...aap ne bilkul sahii nabz pakdii...shurkiyaa...

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........

    जवाब देंहटाएं
  4. sushmaa ji...aap khud itna khobsurat likhti he..aapse aise shabd pana...bahut bahut dhanywaad

    जवाब देंहटाएं
  5. Ridiculous story there. What happened after? Take care!


    Also visit my web blog; Shoe Lift

    जवाब देंहटाएं
  6. always i used to read smaller content that also clear their motive, and that is also
    happening with this post which I am reading at this time.


    Feel free to visit my web site ... Foot Pain symptoms

    जवाब देंहटाएं
  7. सूख कर झड़े पत्तों की सरसराहट को एकदम ठीक-ठीक सुन पाना कहाँ से सीखा ? इत्ती कम उम्र में इतनी परिपक्वता !!!

    जवाब देंहटाएं