सुबह-सुबह देखा चाँद की पलकें बोझिल सी थीं
सपनों के डर से जागता रहा होगा, मेरी ही तरहां
दोपहर भी ना जाने क्यूँ कुढ़-कुढ़ के जले जाती है
कोई कसक उसे भी झुलसाती होगी, मेरी ही तरहां
शाम को लग गयी है किसी की काली नज़र शायद
ख़ामोश सी रहती है, तन्हा - तन्हा मेरी ही तरहां
रात मुहं छिपाए रो रहा था चाँद फफ्क-फफ्क कर
आसमां से जंग- ओ-जदल हुई होगी, मेरी ही तरहां
लैल ओ नहार की तजस्सुस भी जाने क्या है 'जोया'
बस बदलते ही रहते हैं सुबह से रात मेरी ही तरहां
'जोया'
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जंग- ओ-जदल - लड़ाई
लैल ओ नहार - रात और दिन
तजस्सुस - उत्सुकता , खोज
15 टिप्पणियां:
wah...kya khub
बहुत खूब .... सुंदर गज़ल
सुन्दर नज़्म.
बहुत सुंदर
अच्छी रचना
बहुत दिनों के बाद आया हूँ इधर। पुरानी कई नज़्में पढ़ीं .....बहुत ख़ूबसूरत। देख रहा हूँ कि चाँद हम दोनो का प्रिय विषय है। इस पर जितना लिखा जाय कम ही है।
लिखने के लिये समय निकाल पा रही हो ....जानकर अच्छा लगा। लिखती रहो, लिखना एक सजा भी और दवा भी।
baba bde dino baad dekhaa ..apni kisi post pr aapkaa comment......hmmmm.......thanx baba
बहुत दिनों के बाद .....बहुत ख़ूबसूरत।
बहुत दिनों के बाद .....बहुत ख़ूबसूरत।
दोपहर भी ना जाने क्यूँ कुढ़-कुढ़ के जले जाती है
कोई कसक उसे भी झुलसाती होगी, मेरी ही तरहां ..
शब्दों से बिम्ब खड़ा कर दिया ... बेहतरीन ... पढते हुए किसी दूसरे जहां में ले जाती हैं आपकी नज्में ...
बहुत सुंदर रचना
बहुत सुंदर बहुत ख़ूबसूरत।
poonamji, निहार रंजन, महेन्द्र श्रीवास्तव ji
aap sab ka tah e dil se dhnaywaad
दिगम्बर नासवा ji.......aapka comment odnaa apne aap me ik sukhad anubhav he
dhanywaad
दिगम्बर नासवा ji.......aapka comment odnaa apne aap me ik sukhad anubhav he
dhanywaad
Darshan jangra ji
thanx a lot
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