मैं पृथ्वी की तरह
रात से दिन घूमती
अपनी ही धुरी पर
ना जाने कब से
फिर भी रुकी हूँ
युगों से एक ही रास्ते पर
नियति की परिधि पे
निरंतर गोल-2 घूमती
रुकी सी एक ही रस्ते पे
कोई उल्का , कोई क्षुद्रग्रह
गुज़रे जो कभी पास से
तो सोचती हूँ इक पल को
रुकूँ .. मूडु . ..उस और
मगर, मुड़ नहीं पाती
और रुक भी नही पाती
दिन रात बिगड़ने लगते हैं मेरे
ज़ोया****
13 टिप्पणियां:
Kuldeep ji...bahut bahut shukriyaaa aapkaa...:)
दूसरों के लिए जीने वाले अपने दिल की कहाँ कर पाते हैं...बहुत खूब...
vaanbhat ...hmm...aap ne bilkul sahii nabz pakdii...shurkiyaa...
onkar ji ..thanx yahaan tak aane aur psnd krne ke liye
बहुत खूबसूरत अहसास |
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
बहुत ख़ूबसूरत रचना...
imraan ji..bahut bahut shukriyaa
sushmaa ji...aap khud itna khobsurat likhti he..aapse aise shabd pana...bahut bahut dhanywaad
kailaash ji shurkiya
Ridiculous story there. What happened after? Take care!
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सूख कर झड़े पत्तों की सरसराहट को एकदम ठीक-ठीक सुन पाना कहाँ से सीखा ? इत्ती कम उम्र में इतनी परिपक्वता !!!
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